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Syahi Prakashan Uddeshya tatha Parichay

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शनिवार, 28 सितंबर 2019

एक बार फिर मानवीय न्याय की उसी उम्मीद के साथ भारतवर्ष.... इतिहास व वर्तमान में विशाल जनमत के निर्मित होने के कारणों एवं उसके निहितार्थ की तह में जा रहें हैं अनिवार्य प्रश्न के प्रधान संपादक छतिश द्विवेदी

एक बार फिर
मानवीय न्याय
की उसी उम्मीद के साथ भारतवर्ष

विशेष

इतिहास व वर्तमान में विशाल जनमत के निर्मित होने के कारणों एवं उसके
निहितार्थ की तह में जा रहें हैं अनिवार्य प्रश्न के प्रधान संपादक छतिश द्विवेदी

हमारा देश युगों से राजतंत्र एवं दशकों से प्रजातंत्र में भी संपूर्ण मानवीय न्याय को खोजता रहा है। वह जिस रामराज्य की चर्चा करता है एवं जिस राम राज्य के उदाहरण को देता रहा है, वह प्रतीक रुप से मानवीय न्याय के उदाहरण का राज था। यह मानवीय न्याय वह है जो सबको न्यायपूर्ण सुख एवं जीवन जीने में सरलता का प्रबंध समान रूप से करता है। यह सभी पहलुओं से भेद रहित भाईचारे की तस्वीर है। सुनने में यह कुछ दार्शनिक अवश्य है पर यही कभी समाजवाद की तरह दिखता है तो कभी किसी दूसरे अन्य वाद की तरह दिखता है।

विस्तृत आलेख आगे पढ़ें....

विभिन्न वादों विचारधाराओं एवं जाति-वर्गों में विभाजित जनसाधारण में कभी-कभी किसी विशेष चीज को लेकर व्यापक समानता हो जाती है। कई बार क्षेत्र विशेष और देश विशेष की सीमा भी तोड़ कर जनसाधारण के द्वारा बड़े कीर्तिमान स्थापित हो जाते हैं। हालांकि इस कीर्तिमान के निहितार्थ को जन सामान्य समझ भी नहीं पाता। वर्तमान सत्तारूढ़ दल द्वारा पुनः भारी बहुमत से लौटना या कहें तो आम देशवासी एवं राजनीतिक पंडितों की अपेक्षा से अधिक सफलता के साथ चयनित होना उस दल ही के लिए नहीं अपितु सभी के लिए चमत्कार जैसा है। यकीनन है भी। क्योंकि यह समर्थन उम्मीद से कुछ बड़ा है, और उम्मीद से बड़ी हर चीज चैंकाती है। किंतु आम जन साधारण के द्वारा इस तरह का जनसमर्थन कोई नया नहीं है। हो सकता है वर्तमान पीढ़ी इसे मेरे इस लेख के बाद समझे लेकिन हमारे बुजुर्गों एवं अध्ययन करने वाले लोगों के लिए इसके निहितार्थ समझना सरल है।
 राजतंत्र से लेकर वर्तमान भारतीय प्रजातंत्र में जनसाधारण द्वारा इस तरह के अनेक चमत्कार होते रहे हैं। चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक, अकबर जैसे सम्राटों को भारी आमजन का साथ मिला था, प्रजातंत्र में पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी एवं बाद के कुछ लोगों को भी बड़ा जनसमर्थन प्राप्त हुआ था ऐसे जनसमर्थन प्राप्त लोगों में भावनापूर्व समर्थित अटल जी भी उल्लेखनीय हैं।
मानवीय न्याय की चाह ऐसे जनसमर्थनों का एकमात्र कारण होती है या आज तक यही एकमात्र कारण रही है। सामाजिक न्याय, नैतिक न्याय, समाजवाद इत्यादि जैसी अनेक शब्द चित्रियों से सजाया गया, राजनीतिज्ञों द्वारा बताया गया, विभिन्न योजनाओं और व्यक्तियों या सेवाओं के रुप में लागू किया गया व आश्वासन दिया गया सिर्फ एक मात्र मानवीय न्याय की चाह होती है।
यह मानवीय न्याय वह है जो सबको न्यायपूर्ण सुख एवं जीवन जीने में सरलता का प्रबंध समान रूप से करता है। यह सभी पहलुओं से भेद रहित भाईचारे की तस्वीर है। सुनने में और समझने में यह कुछ दार्शनिक अवश्य है पर यही कभी समाजवाद की तरह दिखता है तो कभी किसी दूसरे अन्य वाद की तरह दिखता है। पर इसका संबंध सभी के जीवन की सरलता एवं समान रूप से सभी के लिए सार्वभौमिक स्थिर सुखों की स्थापना से है। यह मानवीय न्याय ही है जो आम जनमानस में व्यापक रूप से सदैव चाहा गया है। और यही है जो किसी भी विचारधारा, व्यक्ति या दल से बधने के पश्चात भारी मात्रा में उसे प्राप्त हो जाता है।
इसकी प्राप्ति का दूसरा पहलू यह भी है कि जब आम जनमानस में वर्तमान सक्रिय सत्ता पक्ष से घोर निराशा हो जाती है तब वह मानवीय न्याय के लिए अपनी खोज में कुछ तीव्र हो जाता है। जैसा कि कुछ समय पूर्व कांग्रेस की घोर निराशा जनक प्रशासन एवं सत्ता संचालन से ऊबकर दिल्ली राज्य में अरविंद केजरीवाल की सरकार को व्यापक एवं लगभग संपूर्ण समर्थन प्राप्त हो गया था।
ब्रिटिश सत्ता संचालन से ऊबकर एवं उनकी क्रूरता से मानवता को मरते हुए देखकर भारतीय जनमानस में मानवीय न्याय की खोज बलवती हुई थी। तब जाकर भारत छोड़ो आंदोलन जैसा व्यापक जनान्दोलन शुरू हुआ और ब्रिटिश राज्य का अंत हुआ। इसके पश्चात् पंडित जवाहरलाल नेहरू को लगभग सर्वमत सरीखा समर्थन प्राप्त हुआ लेकिन कांग्रेस ने उस समर्थन को मानवीय न्याय का आधार न समझते हुए अपने लिए लोगों का अंधविश्वास समझ लिया और कालांतर में बहुत सारे विरोधाभास, भ्रष्टाचार के पहलू एवं सत्ता नशा के लक्षण दिखाई दिए।
वर्तमान समय में प्राप्त हुआ जनसमर्थन मानवीय न्याय की अभिलाषा में ही है। वर्तमान प्रधानमंत्री की बहुत सारी योजनाएं जो मानवीय न्याय को स्थापित करती दिखीं उससे आमलोगों में विश्वास की रेखा उभर गई। यह विश्वास वर्तमान प्रधानमंत्री के लिए नहीं है या वर्तमान विजई दल के लिए नहीं है, यह उस दल से लगाई गई उस उम्मीद के लिए है जो पांच साल में कुछ हद तक मानवीय न्याय को लेकर आगे बढ़ती दिखाई दी है। ऐसे में पिछली सरकारों व राजनीतिक दलों की तरह वर्तमान विजयी दल को भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि आने वाले समय में कुछ योजनाओं व कुछ लोक लुभावनी बातों में उलझा कर वह समाज की उस अभिलाषा से अतिरिक्त कुछ और साधने लगेगा और यही जनसमर्थन उस समय भी उसके साथ बना रहेगा। हमारा देश युगों से राजतंत्र में भी एवं दशकों से प्रजातंत्र में भी संपूर्ण मानवीय न्याय को खोजता रहा है। वह जिस रामराज्य की चर्चा करता है एवं जिस राम राज्य के उदाहरण को देता रहा है, वह रामराज्य किसी भगवान राम का राज्य नहीं था, अपितु प्रतीक रुप से मानवीय न्याय के उदाहरण का राज था। वह समय ऐसा कालखण्ड है जो हर मनुष्य को एक भावना पूर्ण एवं कल्पनीय स्वतंत्रता, उन्मुक्त आनंद का काल है। जो प्रजातांत्रिक सरकारें इन तत्वों से अलग सफर करने लगीं वह आम जन का विश्वास खो दीें। वे चाहे स्वतंत्रता प्राप्ति के अभियान के बाद सत्ता प्राप्त किया दल हो या राजनीतिक परिवर्तन की लड़ाई में उभरा हुआ दल हो।
अतः वर्तमान विजयी दल सिर्फ इतना जान ले कि उसे मानवीय न्याय से जुड़ी सभी योजनाओं पर पूरी प्रतिबद्धता एवं तत्परता से जुटे रहना है।
यही संकल्प उसका आमजन से समर्थन प्राप्त करने की संभावना को प्रशस्त किया है एवं आगे करता रहेगा। हांलाकि नरेंद्र मोदी द्वारा पुनः बहुमत प्राप्त करने के बाद धन्यवाद ज्ञापन में लिए गए तीन संकल्प काफी उम्मीद जगाते हैं। साथ ही उसी वक्तब्य में किए गए जाति वर्णन से बहुत निराशा भी हुई। उन्होंने उसी वक्त दो जातियों का वर्णन करते हुए गरीब वर्ग के साथ अमीर वर्ग का जिक्र नहीं किया। वे अमीर वर्ग को गरीब वर्ग का उत्थान करने वाली जाति बता दिए। हांलाकि मोदी में अच्छे आदर्शों एवं सिद्धांतों को देखते हुए देश उनके साथ प्रेम और विश्वास के मार्ग में आगे बढ़ चला है। वे किसी सामान्य बात को असामान्य तरीके से एवं सामान्य भाव को अलंकृत शब्दावलियों में सजाकर कहने के जादूगर रहे हैं। राष्ट्र को आशा है कि उनकी सामाजिक एवं मानवीय न्याय की योजनाएं विगत पांच साल की तरह ही आगे के वर्षों में ऐसे ही लोगों को चमत्कृत एवं अलंकृत करती रहेंगी। 
आज संपूर्ण भारतवर्ष एक बार फिर उसी मानवीय न्याय की उम्मीद के साथ  खड़ा हो गया है। शिक्षा, सुरक्षा, जीविका, द्रुतसंचार, भौतिक पर्यावरणीय सुधार, कर राहत एवं भ्रष्टाचार उन्मूलन जैसे अनेक दायित्वों को स्मरण दिलाने के साथ ही साथ वर्तमान विजयी दल को एवं उसके नायक को संपूर्ण भारतवर्ष के साथ हमारी भी शुभकामनाएं। 

शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

बार-बार प्रतिबंधित होती पत्रकारिता ........छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’ अनिवार्य प्रश्न के प्रधान संपादक

बार-बार प्रतिबंधित होती पत्रकारिता

विशेष
पत्रकारिता पर इतिहास में लगी बंदिशें सही नहीं थीं, लेकिन विद्वानों का मानना है कि कश्मीर में धारा 370 हटाने के समय का प्रतिबंध सही है, क्योंकि वर्तमान पत्रकारिता में बहुत सारे मीडिया हाउस गैर राष्ट्रवादी ताकतों के हाथ में भी होने का भय है। प्रेस व सरकारों के इसी टकराव के निहितार्थ ढंूढ रहें हैं
अनिवार्य प्रश्न के प्रधान संपादक -छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’

कहने के लिए वर्तमान समय में भारतीय प्रेस को व्यापक स्वतंत्रता प्राप्त है। संविधान में धारा 19 से 22 तक व्यक्ति के आजादी के पर्याप्त उपबंध हैं। जिसमें बोलने की आजादी भी है। जिसकी वजह से वरिष्ठ पत्रकारों तक का ये मानना है कि भारत में प्रेस की स्वतंत्रता का संवैधानिक उपबंध देश की रक्षा करता है।
हांलाकि भारतीय प्रेस के इतिहास का गहन अवलोकन इस बात को झूठा ठहरा देता है। समय 1975 के आपातकाल का रहा हो या वर्तमान दौर में वर्तमान सत्ता की धौंस, बार-बार प्रतिबंध लगता रहा है। प्रेस के प्रतिबंधित होने का मतलब है कि देश में या देश के कुछ हिस्सों में पत्रकारों के विचार-अभिव्यक्ति एवं संचारण पर पूर्ण या आंशिक रोक लगा दिया जाना। इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल के दौरान प्रेस सेंसरशिप लगा दिया। इसे मार्च 1977 में आखिरी समय में हटाया गया। यह आपातकाल लगभग दो-तीन साल प्रेस को बांधे रखा। आगे के समय में भी प्रेस पर प्रतिबंध लगाया जाता रहा। अक्टूबर 2016 को श्रीनगर स्थित कश्मीरी अखबार ‘कश्मीर रीडर’ को जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा प्रतिबंधित किया गया। कहा गया कि उक्त अखबार की सामग्री में वह तत्व शामिल हैं जिससे कि हिंसा को बढ़ावा मिल सकता है। प्रशासन ने यह बात दबाव पूर्वक कहा कि इस अखबार की प्रकाशित सामग्रियों से सार्वजनिक शांति व्यवस्था भंग हो जाएगी। पत्रकारिता का इतिहास भारत में वैसे भी बहुत दमनकारी रहा है। पत्रकारिता को अनेक बार कई कानूनी प्रतिबंधों से, कई बार सामरिक प्रतिबंधों से भी दबाया गया एवं इसका गला घोटा गया।
पत्रकारिता के विशेषज्ञ हमारे सारे वरिष्ठ साथी ईस्ट इंडिया कंपनी के उस गलाघोटू विधान को भूले नहीं होंगे जो पत्रकारिता के प्रारंभ में पत्रकारिता के भारतीय भविष्य की तस्वीर को जाहिर कर दिया था। हिक्की के बंगाल गजट को 1782 में प्रतिबंधित कर दिया गया था जो इसी बात को बताता रहा कि प्रेस का भविष्य भारत में कैसा होगा। उस समय बहुत सारे पत्रकारों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया और 1799 के समय में पत्रकारिता को विनियमित किया गया, छापने से पहले सरकार की अनुमति लेनी आवश्यक कर दी गई। सन् 1857 के विद्रोह के दौरान गैगिंग एक्ट पारित किया गया। जिसमें प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना एवं प्रकाशन को प्रतिबंधित करते हुए कुछ भी छापने से पहले सरकारी अनुमति लेने की बात कही गई। सभी पत्रों को सरकार से लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया गया। कमोबेश लाइसेंस लेने और दबाने के लिए प्रक्रियाएं आज तक व्यवहार में हैं। साथ ही एक बार तो सरकार ने पत्रकारिता के बड़े मीडिया हाउसों में पारस्परिक विलय करा कर उनके सैद्धांतिक उत्थान को मिटाना चाहा। प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया और यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया को अंग्रेजी में और समाचार भारती एवं हिंदुस्तान समाचार जैसी हिंदी के मीडिया हाउसों को पारस्परिक विलय करने के लिए मजबूर किया गया। इसका उद्देश्य मात्र मीडिया को सूचना के प्रवाह के लिए नियंत्रित करना था। इन सारे प्रतिबंधों में दिल्ली एवं उसके आसपास के क्षेत्रों एवं कोलकाता के पत्रकारों का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ।
 भारत में आजाद पत्रकारिता की महत्ता को समझाते हुए महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि हमें अपने विचारों को प्रकाशित और प्रसारित करने के तरीकों को और अधिक विकसित करना चाहिए। जब तक पूरे प्रेस निर्भीक ना हो जाएं तब तक देश का जन-जन अपने अधिकारों को पा नहीं सकता। लेकिन आजादी के दशकों बाद अब राजनीति बदल गई। जवाहरलाल नेहरू से तुलना करते हुए इंदिरा गांधी ने एक बार यहाँ तक कह दिया कि मेरे पिता एक संत थे पर मैं राजनीतिक महिला हूं संत नहीं। मेरे सभी खेल राजनीति के खेल हैं। जरा सोचें क्या अपने सामान्य महत्वकांक्षा में भी पत्रकारिता को प्रतिबंधित करना चाहिए? वर्तमान समय में जब कश्मीर में पत्रकारिता पर आंशिक प्रतिबंध लगा है या लगाया गया तो पत्रकारिता के मनीषियों ने एक साथ इसका समर्थन एवं सहयोग किया। यहां तक कि कश्मीर में कार्यरत एवं पत्रकारिता की सेवा में लगे हमारे संवाददाता और छायाकार भी। सभी ने एक साथ एकजुटता दिखाई और आंशिक प्रतिबंध का स्वागत किया। जिसमें रिपोर्टिंग प्रतिबंधित नहीं थी सिर्फ प्रसारण रोका गया था।
भारत के इतिहास में पहली बार लगा कि पत्रकारिता पर भी प्रतिबंध लगने चाहिए। पत्रकारिता भी शांति व्यवस्था एवं सार्वजनिक हित के लिए कहीं न कहीं संकट खड़ा करने वाला तत्व बन सकती है। इसके पीछे एक कारण है कि पत्रकारों के सिद्धांतों का एवं उनके क्रियाओं का ना ही नियमन किया गया ना ही विशेष कार्यशालाएँ आयोजित हुई। बहुत सारे अखबार, दूरदर्शन और रेडियो समूह ऐसे हाथों में भी हो सकते हैं जो राष्ट्रवादी नहीं हंै। गाॅसिप्स, सेक्स की स्टोरीज, बकवास दर्शन, अश्लील सामग्रियाँ, धर्म भ्रान्तियां, अंधविश्वास प्रेरक मसाले व चरमपंथी आलेख आदि का प्रकाशन एवं प्रसारण इसके प्रमाण हैं। ऐसी शक्तियां जो राष्ट्रवाद, भारतीय मूल धारा एवं संस्कृति की चिंतक नहीं हैं वह संपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हंै। यहाँ तक कि वर्तमान में जो मतभेद एवं वैचारिक संघर्षों का फैलाव देखा जा रहा है वह सभी उन विघटनकारी और गैर-राष्ट्रवादी पत्रकारिता समूह के द्वारा ही फैलाया गया छद्म है। हालांकि नियंत्रण पहले से कठोर हुए हैं। 2008 से पहले भारत सरकार द्वारा इंटरनेट सामग्री की सेंसरशिप अपेक्षाकृत कम और छिटपुट थी। नवंबर 2008 में मुंबई में आतंकी हमलों के बाद जिसमें भारी जन धन का नुकसान हुआ, भारतीय संसद ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम में संशोधन बिल पारित किया। इस बिल ने सरकार की सेंसरशिप और निगरानी क्षमताओं को बढ़ा दिया। लेकिन बड़े पैमाने पर इंटरनेट सामग्री तक पहुंचना एवं उसे रद्द करने के लिए निरंतर सरकार ना ही समर्थ है ना ही उसके पास कोई व्यापक रणनीति है। हाँ कभी-कभार कठोर कार्यवाही होतीे दिखाई पड़ती है। 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि वेबसाइटों पर पोस्ट की गई टिप्पणी के लिए मानहानि के मुकदमें और यहां तक कि आपराधिक मुकदमों का सामना करना पड़ सकता है, तब से कुछ डर का माहौल बढ़ा है।
राष्ट्रवादी कारणों से या सार्थक कारणों से पत्रकारिता में खासकर जो राष्ट्रवादी व जनसमर्थक नहीं हैं उनके ऊपर प्रतिबंध होना चाहिए। उस समय तो प्रतिबंध अवश्य लगना चाहिए जिस समय राष्ट्रीय सुरक्षा, उसकी  अखंडता एवं उसकी एकजुटता पर संकट दिखाई दे। वर्तमान सरकार का गैर-राष्ट्रवादी शक्तियों के संशय में लगाया गया कश्मीर क्षेत्र में पत्रकारिता पर आंशिक प्रतिबंध पहली बार श्रेष्ठ प्रतिबंध था।
हालांकि इसके पहले इसी सरकार में लगाये गये पत्रकारिता के एक समूह पर दूसरे तरह के प्रतिबंध गैरजरूरी थे। आपको जानना चाहिए कि सरकार को मीडिया को प्रतिबंधित करने की कुछ संवैधानिक शक्तियां मिली हुई हंै। जिसकी लगभग 8 श्रेणियां प्रमुख मानी जाती हंै। भारत की संप्रभुता व अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ महत्वपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, नैतिकता, न्यायालय की अवमानना और उत्पीड़न के संबंध में सरकार मीडिया पर प्रतिबंध लगा सकती है।
चिंता की बात यह है कि हमारे चैथे स्तंभ के विद्वान पत्रकारजन यह क्यों नहीं समझ पाते कि कौन से विषय को प्रकाशित करना राष्ट्रीय हितों के लिए ठीक नहीं है। यहां ऐसी शक्तियों के विकास को रोकना होगा जो राष्ट्र को भाषिक, सैद्धांतिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक रूप से तोड़ने का काम करती हैं। वह चाहे पत्रकारिता के समूह हों, न्यायालय के नियम पारित करने के अनुभाग या स्वयं कानून बनाने वाली विधायिका से जुड़े समूह। सबको प्रतिबंधित करना होगा। यह प्रतिबंध समाज की दृष्टि में नाजायज कभी नहीं ठहराए जाएंगे। इन्हें जरूरी समझा जाएगा और हमारे सभ्य समाज में इसे ठीक समझा जाता रहा है। इस तरह के प्रतिबंध लगने चाहिए। वह चाहे व्यक्ति हो संस्था हो या संस्था की कोई व्यवस्था हो। सबसे बड़ा राष्ट्र है और उससे भी बड़ा राष्ट्रहित है।