हालाते बयान :
सत्ता की विफलताओं के लिए जुर्माने भरता समाज: छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’
बनारस में शव जलाने के लिए घाट सुधार के साथ श्मशान की वैकल्पिक व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था इस ओर संकेत करती है कि हम अपने यहां जीवन को संरक्षित नहीं कर पाए। विगत दिनों नगर निगम ने एक सूचना में साफ तौर पर बताया था कि हम आम लोगों को होने वाले कष्ट को कम करने के लिए शवदाह के वैकल्पिक स्थलों की व्यवस्था कर रहे हैं।
लेकिन यहां पर अनिवार्य प्रश्न यह उठता है कि इतने शव क्यों? कैसे?
जीवन जीने के लिए उपयुक्त चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था व इसके सामयिक पड़ने वाली आवश्यकताओं के लिए वैकल्पिक आवश्यक आकस्मिक चिकित्सा सुविधा की तैयारी क्यों नहीं की गई? काशी ही नहीं पूरे देश से आई सूचना के मुताबिक किसी अस्पताल में ऑक्सीजन घट गया, कहीं कोई औषधि घट गई, कहीं कहीं वेड घट गया तो कहीं डॉक्टर ही एडमिट लेने के लिए तैयार नहीं है।
कुल मिलाकर मुगल काल हो या अंग्रेजों का शासन आम आदमी अपने चिकित्सा व शिक्षा शिक्षा को लेकर भगवान पर ही निर्भर रह गया। अव आज भी हाशिए पर है। अब सवाल ऐसे मोड़ पर यह उठाना जरुरी हो जाता है कि क्या हमारे बनाए गए संविधान में दोष है? हमारे चुनावों में दोष है? हमारी तैयारियों में दोष है, आखिर इतनी मौतों के लिए हम तैयार क्यों नहीं हैं?
आज तक हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को ठीक नहीं कर पाए, आज तक हम अपनी आवश्यक चिकित्सा व्यवस्था को ठीक नहीं कर पाए, आज तक अस्पताल नहीं बना पाए। सरकारही आकड़े कुछ भी बोलते हों जितनी जरूरत समुदायों को होती है उस की अपेक्षा एक प्रतिशत ही अस्पताल की सुविधाएं उपलब्ध हैं। ऐसे में 70 साल की तरक्की और उन्नति के बाद समाज अपने लिए क्या कुछ बना पाया है? यह चिंतन का विषय है।
अस्पतालों के बाहर मरीज मर रहे हैं, उनका दाखिला तक नहीं हो पा रहा, चिकित्सक जो सेवा भाव से काम कर रहे हैं वह भी बीमार पड़ रहे हैं, भ्रष्टाचारी और गैर जिम्मेदार चिकित्सक अपना पल्ला झाड़ ले रहे हैं, कुछ अस्पताल इस आपदा को अवसर के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, खूब पैसे कमा रहे हैं। चिकित्सकीय सामग्रियों सेवाओं की बेहिसाब कीमत वसूल रहे हैं। बाजार का यह चेहरा यह समाज समझ नहीं पा रहा है। मौतों की भी सौदेबाजी हो रही है। चारों तरफ चीखें हैं। उन्नति अगर यही है तो हमारी पहले वाली शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था ज्यादा ठीक थी। जहां भावनाएं अधिक थीं बिक्री के सामान कम थे।
फिर से समाज को लौटना होगा अपने उसी पिछड़ेपन की ओर जहां आबादी कम थी उसके सापेक्ष चिकित्सा व सुरक्षा की भावनात्मक व उत्तम व्यवस्था थी। साथ ही इस हाहाकार से निकलना होगा और अपने शिक्षा व्यवस्था में नैतिकता के साथ नैतिक शिक्षा को जोड़ना होगा। समाज को समाज रहने देना होगा। इसे बाजार से दूर करना होगा। बाजार के चलन को गौण चलन मानना होगा। साथ ही चुनाओं में सही नेतृत्व के लिए सामुहिक प्रयत्न करना होगा।
छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’
साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार, संपादक व प्रकाशक