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बुधवार, 5 मई 2021

हालाते बयान : सत्ता की विफलताओं के लिए जुमाने भरता समाज : छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’

हालाते बयान :

सत्ता की विफलताओं के लिए जुर्माने भरता समाज: छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’


बनारस में शव जलाने के लिए घाट सुधार के साथ श्मशान की वैकल्पिक व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था इस ओर संकेत करती है कि हम अपने यहां जीवन को संरक्षित नहीं कर पाए। विगत दिनों नगर निगम ने एक सूचना में साफ तौर पर बताया था कि हम आम लोगों को होने वाले कष्ट को कम करने के लिए शवदाह के वैकल्पिक स्थलों की व्यवस्था कर रहे हैं।

लेकिन यहां पर अनिवार्य प्रश्न यह उठता है कि इतने शव क्यों? कैसे?

जीवन जीने के लिए उपयुक्त चिकित्सा सुविधाओं की व्यवस्था व इसके सामयिक पड़ने वाली आवश्यकताओं के लिए वैकल्पिक आवश्यक आकस्मिक चिकित्सा सुविधा की तैयारी क्यों नहीं की गई? काशी ही नहीं पूरे देश से आई सूचना के मुताबिक किसी अस्पताल में ऑक्सीजन घट गया, कहीं कोई औषधि घट गई, कहीं कहीं वेड घट गया तो कहीं डॉक्टर ही एडमिट लेने के लिए तैयार नहीं है।

कुल मिलाकर मुगल काल हो या अंग्रेजों का शासन आम आदमी अपने चिकित्सा व शिक्षा शिक्षा को लेकर भगवान पर ही निर्भर रह गया। अव  आज भी हाशिए पर है। अब सवाल ऐसे मोड़ पर यह उठाना जरुरी हो जाता है कि क्या हमारे बनाए गए संविधान में दोष है? हमारे चुनावों में दोष है? हमारी तैयारियों में दोष है, आखिर इतनी मौतों के लिए हम तैयार क्यों नहीं हैं?

आज तक हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को ठीक नहीं कर पाए, आज तक हम अपनी आवश्यक चिकित्सा व्यवस्था को ठीक नहीं कर पाए, आज तक अस्पताल नहीं बना पाए। सरकारही आकड़े कुछ भी बोलते हों जितनी जरूरत समुदायों को होती है उस की अपेक्षा एक प्रतिशत ही अस्पताल की सुविधाएं उपलब्ध हैं। ऐसे में 70 साल की तरक्की और उन्नति के बाद समाज अपने लिए क्या कुछ बना पाया है? यह चिंतन का विषय है।

अस्पतालों के बाहर मरीज मर रहे हैं, उनका दाखिला तक नहीं हो पा रहा, चिकित्सक जो सेवा भाव से काम कर रहे हैं वह भी बीमार पड़ रहे हैं, भ्रष्टाचारी और गैर जिम्मेदार चिकित्सक अपना पल्ला झाड़ ले रहे हैं, कुछ अस्पताल इस आपदा को अवसर के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, खूब पैसे कमा रहे हैं। चिकित्सकीय सामग्रियों सेवाओं की बेहिसाब कीमत वसूल रहे हैं। बाजार का यह चेहरा यह समाज समझ नहीं पा रहा है। मौतों की भी सौदेबाजी हो रही है। चारों तरफ चीखें हैं। उन्नति अगर यही है तो हमारी पहले वाली शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था ज्यादा ठीक थी। जहां भावनाएं अधिक थीं बिक्री के सामान कम थे।

फिर से समाज को लौटना होगा अपने उसी पिछड़ेपन की ओर जहां आबादी कम थी उसके सापेक्ष चिकित्सा व सुरक्षा की भावनात्मक व उत्तम व्यवस्था थी। साथ ही इस हाहाकार से निकलना होगा और अपने शिक्षा व्यवस्था में नैतिकता के साथ नैतिक शिक्षा को जोड़ना होगा। समाज को समाज रहने देना होगा। इसे  बाजार से दूर करना होगा। बाजार के चलन को गौण चलन मानना होगा। साथ ही चुनाओं में सही नेतृत्व के लिए सामुहिक प्रयत्न करना होगा।


छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’

साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार, संपादक व प्रकाशक

पत्रकारिता के धर्म पहरुओं को नमन -छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’

 पत्रकारिता के धर्म पहरुओं को नमन

-छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’

इतिहास में हमेशा से अनेक पक्षों ने बलिदान देकर इतिहास को व उसके मंदिर को रोशन रखा है। राष्ट्र रक्षा में जितना योगदान सेना के जवानों का है वह पूजनीय है। ठीक वैसे ही राष्ट्र के विचार संपदा व संस्कृति की रक्षा में जितना योगदान पत्रकारिता का है व पत्रकारिता के जवानों का है उनका योगदान भी अति पूजनीय है।

दौर अंग्रेजों का रहा हो या स्वतंत्र भारत के बाद की सरकारों का पत्रकारिता घटना की सच्चाई व अवस्था के वर्णन के लिए अपने कर्म को साधने से बाज नहीं आई। वीर पत्रकारों ने हर युग में, हर दशा में उस कालखण्ड से जुड़े घटना वर्णन को समाज के सामने प्रस्तुत किया। कई बार तत्कालीन सरकारों व सत्ताओं ने पत्रकारिता एवं उसके वीरों का अनादर किया, उसे यातना दिया, लेकिन उनके कर्म यथावत बने रहे व समाज को बताते रहे कि समाज में क्या हो रहा है। वह समाज को उसके कथनी और करनी का चित्र दिखाते रहे। वह समाज में उसके हालातों का चित्रण करते रहे। वह आइना सरीखा सबके सामने प्रतिबिंब बन कर खड़े रहे।

अंग्रेजिअत काल में भी बहुत यातनाएं झेलना पड़ा था पत्रकारिता को। जो आज तक झेलना पड़ रहा है स्वतंत्र भारत में भी। दौर चाहे आजाद भारत के बाद सुशासन के प्रचार का हो या इमरजेंसी के दिनों में पत्रकारों के दमन का हो, बदली सरकारों में उनके भ्रष्टाचार के व्याख्या का हो, वर्तमान सरकार के गुणगान का हो, कश्मीर प्रतिबंध के समय पत्रकारों के परिधि बंधन का हो, कोविड-19 मौतों के व्याख्या का हो या विकास के समय अपना सीना ठोक ठोक कर राष्ट्रगान का हो, सभी जानकारियां बिना पत्रकारों के बलिदान व पत्रकारिता के संभव नहीं थी। हर समय चाहे जीवन के उत्सव का दौर हो या शमशान पर मातम का दुखद दौर, हर समय पत्रकार अपने धर्म निर्वाह पर भाव के उच्च स्तर से कायम रहे।

बावजूद इसके कुछ प्रशासनिक महकमे के अधिकारीजनों को यह कहते सुना जाता है कि आज पत्रकारिता से जुड़े लोग पैसे लेकर खबर बेच देते हैं। उनके लिए यहां यह कहना आवश्यक हो जा रहा है कि समूची धरती का स्तर गिरा है। युग के प्रत्येक आदर्शवादी मानदंड में गिरावट आई है। हमारे नैतिक सिद्धांतों का हर सिरा टूटा है। हर आदमी कि अपनी आत्मा की क्षति हुई है। हर आदमी का अपना कर्म स्तर स्खलित हुआ है।

ऐसे में पत्रकारिता भी आदमी ही करता है। कुछ गिरावट आई होगी। लेकिन हमारे दूसरे कर्मों के क्षेत्र वाले लोगों से कम गिरावट पत्रकारिता में हुई है। यह गर्व की बात है। हमारे बलिदान का स्तर आज भी उतना ही है। हमारे कर्म के साथ जुड़े हमारे त्याग भाव का स्तर आज भी उतना ही है। हमारे भारत के पत्रकारों को उनकी पत्रकारिता पर गर्व होना चाहिए और है भी। इससे महान दूसरा धर्म नहीं है।

वर्तमान कोविड-19 के काल खण्ड में भी अभी दिखाई दे रहा है कि क्या दिल्ली का क्या कश्मीर का, क्या काशी का क्या कन्याकुमारी का और क्या कोलकाता का, हर जगह, हर वर्ग व हर पद से संवादधर्म को निभाने वाले हमारी पत्रकारिता के पहरुए मिट रहे हैं। शान से मिट रहे हैं। फिर भी अपने कर्म के निर्वाह में पीछे नहीं हट रहे हैं। वह दुनिया के  लिए दुनिया के समक्ष समाचार और सूचना के तंत्र से जुड़े हुए हैं। उन्हें खौफ नहीं मौत का। उनकी खबरों से पूरा समाज खौफजदा है लेकिन व खबरों पर खड़े हैं। वह खबरों के संग्रह व संचारण में लगे हुए हैं। पत्रकारिता ने बहुत क्षतिया देखी हैं। पत्रकारिता से कईयों का साम्राज्य गिर चुका है। हो सकता है लाखों कुमार्गियों का सर्वनाश हुआ हो। लेकिन सच्चाई हमेशा ताकत पाती रही है।

बहुत नुकसान सहकर भी हमारी पत्रकारिता आज भी सजग है, सुलभ है, समर्थ है। दूसरी ओर एक गर्व की बात है कि वह अपने नुकसान को सहकर भी मुस्कुरा रही है। हताश नहीं है। पत्रकारिता को आदर्श व समाज और विश्व की आवश्यक आवश्यकता मानकर कर्फ्यू में भी अंजाम देने वाले जमीनी सुर वीरों से पूछा जाए तो वह साफ तौर पर कहते हैं प्रणम्य है पत्रकारिता।

आज के इस युग में जब हर कोई अपने घर में छुप जाना चाह रहा है और छुपा हुआ है। समाज का शुभ चाहने का दावा करने वाली सरकारें पत्रकारों में ही  वैक्सीन जैसी चीज के लिए मान्यता और गैर मान्यता प्राप्त श्रेणी बनाकर वर्गीकरणकर रहीं हैं। जब कोविड-19 कोहराम मचा हुआ है, चारों तरफ मौतों की तस्वीर सड़क पर फैली हुई है। कोई-कोई घर से बाहर अपनी जान हथेली पर लेकर निकल रहा है। सरकारें उसके लिए जुर्माना तय कर रखी है और वसूल रही हैं। जरा सोचिए पत्रकारिता भी तो कोई चीज है जो अपने ही बच्चों को खुलेआम मौत से आंखें मिलाकर मौत की अच्छाई, बुराई उसकी कमजोरी व उसकी ताकत लोगों में बांटने के लिए मौत के आसपास तक भेज रही है। जीवन की व्याख्या करना सरल है पर मौत का चेहरा शब्दों से बनाना कठिन है। दौर ऐसा है जब हर कोई ठिठक गया है, लेकिन पत्रकारिता चल रही है। अपने अटूट व महान धर्म के मार्ग पर।

सवाल अब भी किए जाने चाहिए। बलिदान अब भी किए जाने चाहिए। पर, अब मूल्यांकन के साथ। बलिदानों के अस्तर का, बलिदानों के ऊंचाई का, समाजहित में समर्पण के गहराई का मूल्यांकन जरुर किया जाना चाहिए। एक बात कहनी पड़ेगी कि हम सभी को पत्रकारिता पर गर्व करनी चाहिए। उसे प्रणम्य समझना चाहिए। सोचिए इस राह में अपने जीवन की आहुति देने वाले हमारे भाइयों ने इसे कितना चाहा होगा। उनके बलिदानों ने इसे पावन व महान धर्म बनाकर रख दिया है। उन पत्रकारिता के सुर वीरों को जिन्होंने इसे धर्म समझा, और सब निछावर किया उन्हें नमन करना चाहिए। हम अन्तः की गहराइयों से उन्हें नमन करते हैं।

छतिश द्विवेदी ‘कुंठित’

साहित्यकार, वरिष्ठ पत्रकार, संपादक व प्रकाशक